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नदी के द्‌वीप (प्रश्नोत्तर)




नदी के द्‌वीप

सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन "अज्ञेय"

प्रश्न 

नदी के द्‌वीप शीर्षक कविता के प्रतीकों को स्पष्ट करते हुए उनके पारस्परिक संबंधों पर अपने विचार लिखिए।

उत्तर
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सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन "अज्ञेय" को प्रतिभासम्पन्न कवि, शैलीकार, कथा-साहित्य को एक महत्त्वपूर्ण मोड़ देने वाले कथाकार, ललित-निबन्धकार, सम्पादक और सफल अध्यापक के रूप में जाना जाता है। बी.एस.सी. करके अँग्रेजी में एम.ए. करते समय क्रांतिकारी आन्दोलन से जुड़कर बम बनाते हुए पकडे गये और वहाँ से फरार भी हो गए। सन् 1930 ई. के अन्त में पकड़ लिये गये। अज्ञेय प्रयोगवाद एवं नई कविता को साहित्य जगत में प्रतिष्ठित करने वाले कवि हैं। "आँगन के पार द्‌वार" पर सन्‌ 1964 में इन्हें साहित्य अकादमी के पुरस्कार तथा 1978 में " कितनी नावों में कितनी बार" पर भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया। इन्होंने अनेक वर्षों तक दैनिक नवभारते टाइम्स का संपादन किया। इनकी रचनाओं में दार्शनिकता और चिंतन को विशेष महत्त्व दिया गया है। इनकी भाषा सहज है जिसमें तत्सम एवं नए मुहावरों का भरपूर प्रयोग किया गया है।
प्रमुख रचनाएँ - हरी घास पर क्षण भर, इत्यलम, बावरा अहेरी, पहले मैं सन्नाटा बुनता हूँ, सागर मुद्रा आदि।

नदी के द्‌वीप अज्ञेय द्‌वारा लिखी गई हिन्दी की श्रेष्ठ प्रतीकात्मक कविता है जिसमें कवि ने नदी, द्‌वीपभूखंड के द्‌वारा व्यक्ति, परम्परा और समाज के पारस्परिक संबंधों को समझने की कोशिश की है। प्रस्तुत कविता में प्रतीकों के माध्यम से विचार को संप्रेषित किया गया है। विचार प्रतीकों में ढाले गए हैं-
द्वीप = व्यक्तित्व = शिशु
नदी = संस्कृति/परंपरा = माँ
भूखण्ड = समाज = पिता
कविता में आए प्रतीकों के दो-दो अर्थ हैं-एक प्राकृतिक है (द्वीप, नदी, भूखण्ड) और दूसरा मानवीय( शिशु , माँ, पिता) और ये दोनों मिलकर प्रकृति और मनुष्य के अविभाज्य सृष्टि-संबंध को अभिव्यक्त करते हैं।

नदी जिस तरह द्वीप के उभार, सैकत-कूल को गढ़ती है,उसके बाहरी और भीतरी रूपाकारों को गढ़ती है, संस्कृति वैसे ही व्यक्तित्व की रूपरेखा, चाल-चलन , चरित्र और मानवीय मूल्य-बोध को गढ़ती है।

कवि के शब्दों में-

                  हम नदी के द्‌वीप हैं
                  हम नहीं कहते कि हमको छोड़कर स्रोतस्विनी बह जाए।
                  वह हमें आकार देती है।
                  हमारे कोण, गलियाँ, अंतरीप, उभार, सैकत-कूल
                 
सब गोलाइयाँ उसकी गढ़ी हैं।

माँ बच्चे को नहलाती-धुलाती है, कपडे पहनाती है, बदन की मालिश करती है, दूध पिलाती है और इस तरह उसके शरीर को गर्भ के बाहर भी गढ़ती और आकार देती है। दूसरी ओर वह उसकी पहली शिक्षिका होती है जो उसे नीति का, जीवन मूल्यों का, प्यार, विश्वासों और मान्यताओं का संस्कार देती है, उसके मन को गढती है। संस्कृति भी व्यक्तित्व का विकास इसी तरह से करती है। लेकिन जिस तरह शिशु माँ के गर्भ से निकलकर स्वतंत्र अस्तित्व हासिल करता है, बचपन, यौवन और वयस्कता की सीढियाँ चढते हुए माँ से अलग अपना स्वतंत्र व्यक्तित्व विकसित करता है, उसी तरह व्यक्ति भी संस्कृति या परम्परा से रूप-आकार और संस्कार पाने के बावजूद मूलत: स्वतंत्र अस्तित्व रखता है।

कवि के अनुसार संस्कृति के प्रति समर्पण और स्वतंत्र अस्तित्व का बोध ही व्यक्तित्व का निर्माण करता है। व्यक्ति उस संस्कृति या परम्परा में बहता नहीं। ऐसा करने से वह रेत बन जाएगा। रेत के कण की कोई अलग पहचान नहीं होती। व्यक्ति की पहचान ही मिट जाएगी। व्यक्ति के पैर उखड़ जाएँगे और उसका अस्तित्व परम्परा की बाढ़ में बह जाएगा। ऐसी स्थिति में व्यक्ति का संस्कृति या परम्परा के प्रति कोई योगदान नहीं रहेगा। व्यक्ति परम्परा रूपी नदी के पानी में रेत के रूप में मिलकर उसे गंदला ही करेगा।
कवि यह इनकार नहीं करता कि भूखण्ड (समाज/पिता) से द्वीप (व्यक्ति/शिशु ) का रिश्ता है, लेकिन यह रिश्ता अप्रत्यक्ष है, औपचारिक है, दूरस्थ है, कम आत्मीय है, ज़रूरत भर का है. सचमुच द्वीप से भूखण्ड दूर ही होता है और नदी ही दोनों को मिलाती है, उसी तरह जैसे माँ ही बच्चे को पिता का बोध कराती है। शिशु पैदा होने के साथ माँ पर ही निर्भर है अपनी मूलभूत  ज़रूरतों के लिए। यदि माँ न बताए तो शिशु प्रामाणिक तौर पर नहीं जान सकता कि उसका पिता कौन है। अज्ञेय इस कविता में व्यक्ति, समाज और संस्कृति का ऐसा ही संबंध देखते हैं। व्यक्ति के लिए संस्कृति आंतरिक है, उसकी जीवनी शक्ति है जबकि समाज  बाहरी है, जो सिर्फ़ जीने का साधन मुहैया कराता है।

कवि के शब्दों में -
                    द्वीप हैं हम! यह नहीं है शाप. यह अपनी नियती है.
                   
हम नदी के पुत्र हैं. बैठे नदी की क्रोड में.
                    वह वृहत भूखंड से हम को मिलाती है.
                    और वह भूखंड अपना पितर है।

अत: निष्कर्ष में हम कह सकते हैं कि "नदी के द्‌वीप" एक प्रतीकात्मक कविता है जिसमें व्यक्ति, परम्परा और समाज को क्रमश: द्‌वीप, नदी एवं भूखंड से जोड़ा गया है।

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