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बाललीला (प्रश्नोत्तर )



बाललीला

सूरदास

प्रश्न

सूरदास जी बाल स्वभाव के अनूठे पारखी हैं। अपने पाठ के पदों के आधार पर इस कथन की समीक्षा कीजिए।

उत्तर

महाकवि सूर को बाल-प्रकृति तथा बालसुलभ चित्रणों की दृष्टि से विश्व में अद्वितीय माना गया है। उनके वात्सल्य वर्णन का कोई साम्य नहीं, वह अनूठा और बेजोड है। बालकों की प्रवृति और मनोविज्ञान का जितना सूक्ष्म व स्वाभाविक वर्णन सूरदास जी ने किया है वह हिन्दी के किसी अन्य कवि या अन्य भाषाओं के किसी कवि ने नहीं किया है। सूर के वात्सल्य वर्णन में यद्यपि उनके विष्णु अवतार होने की झलके तो अवश्य मिलती है, तथापि ये वर्णन किसी भी माँ के अपने पुत्र के प्रति वात्सल्य का प्रतिनिधित्व करते हैं। हिन्दी साहित्य में भगवान श्रीकृष्ण के अनन्य उपासक और ब्रजभाषा के श्रेष्ठ कवि  सूरदास हिंदी साहित्य के सूर्य माने जाते हैं। सूरदास भक्तिकाल के सगुण भक्ति धारा के प्रतिनिधि कवि हैं। गुरु वल्लभाचार्य ने इन्हें कृष्णलीला के पद गाने का आदेश दिया।
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सूरदास जी द्वारा लिखित पाँच ग्रन्थ बताए जाते हैं:
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१) सूरसागर - जो सूरदास की प्रसिद्‌ध रचना है। जिसमें सवा लाख पद संग्रहित थे। किंतु अब सात-आठ हजार पद ही मिलते हैं।
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२) सूरसारावली
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३) साहित्य-लहरी - जिसमें उनके कूट पद संकलित हैं।
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४) नल-दमयन्ती
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५) ब्याहलो
कृष्ण का बचपन ग्रामीण परिवेश में व्यतीत हुआ है जहाँ माता यशोदा  की ममतामयी छाया में कृष्ण का बालपन लीलाओं से भरा पड़ा है। पहले पद में सूरदास कहते हैं कि हाथ में मक्खन लेकर कृष्ण घुटने के बल चलते हैं। उनका सम्पूर्ण शरीर धूल से सना हुआ है। मुख पर दही का लेप लगा हुआ है। धूल, दही और मक्खन से सने कृष्ण अत्यंत मनमोहक लग रहे हैं। कृष्ण के गाल बड़े सुंदर हैं, उनकी आँखें चंचल हैं और माथे पर गोरोचन का तिलक लगा हुआ है। उनके मुख पर लटकते हुए घुँघराले बालों की लटों को देखकर ऐसा लगता है जैसे खिले हुए पुष्प पर भँवरे मँडरा रहे हों और कृष्ण के सौन्दर्य रूपी रस का पान कर मंत्र-मुग्ध हो रहे हों। माता यशोदा को अपने लाडले पर बड़ा नाज है, सो बड़ी चिन्तित रहती है कि उसे किसी की नज़र ना लग जाए। यही कारण है कि जब एक दिन माँ की गोद में अलसाते कान्हा ने जोर की जम्हाई लेकर अपने मुख में तीनों लोकों के दर्शन करवा दिये तो माँ डर गई और उनका हाथ ज्योतिषियों को दिखाया और बघनखे का तावीज गले में डाल दिया। सूरदास कहते हैं कि कृष्ण के इस सौंदर्य को एक क्षण के लिये देखने भर का सुख भी सौ कल्पों के सुख से भी बहुत बड़ा है।

एक उदाहरण दृष्टव्य है -

शोभित कर नवनीत लिए। 

घुटुरुन चलत रेनु-तन-मंडित, मुख दधि-लेप किए।

चारु कपोल लोल लोचन, गोरोचन तिलक दिए।

लट लटकनि मनु मत्त मधुप-गन, मादक मधुहिं पिए।

कंठुला कंठ, व्रज केहरि-नख, राजत रुधिर हिए। 

धन्य सूर एको पल इहिं सुख, का सत कल्प जिए।

दूसरे पद में सूरदास कहते हैं कि कृष्ण थोड़े बड़े हो गए हैं। वे पैदल चलने लगे हैं। उन्हें थोड़ा-थोड़ा बोलना भी आ गया है। बाल कृष्ण माता यशोदा को  मैया-मैया कहकर पुकारते हैं और आदरणीय नन्द बाबा को बाबा-बाबा कहना सीख गए हैं। कृष्ण बड़े भाई बलराम को भैया कहते हैं। कृष्ण के मुख से अपने लिए प्यार-भरे रिश्ते का संबोधन सभी को प्रसन्न कर देता है। यशोदा ऊँचे स्थान पर चढ़कर कन्हैया को पुकारती हैं और उन्हें निर्देश देती है हैं - बेटा, ज़्यादा दूर तक खेलने मत जाओ क्योंकि किसी की भी गाय तुम्हें चोट पहुँचा सकती है। यह माँ का अपने पुत्र के प्रति अपार स्नेह और चिन्तित होने का भाव है। गोपी और ग्वाले  कृष्ण की नई-नई क्रियाओं को देखने के लिए इच्छुक रहते हैं। कृष्ण की बाल-सुलभ चेष्टाओं को देखकर पूरे ब्रज में अपूर्व खुशी का वातावरण छा गया है। कृष्ण के चलना सीखने की खुशी सिर्फ़ यशोदा माता को ही नहीं बल्कि पूरे ब्रज को है। घर-घर में स्त्रियां बधाई गाकर अपनी खुशी अभिव्यक्त कर रही है। सूरदास कहते हैं कि हे प्रभु! मैं तुम्हारे उन चरणों की बलिहारी जाता हूँ जिन्होंने तुम्हारे दर्शन करवाए।

कवि के शब्दों में -

गोपी ग्वाल करत कौतूहल, घर-घर बजती बधैया।
सूरदास प्रभु तुम्हरे दरस कौं, चरननि की बलि जैया॥
 
सूरदास तीसरे पद में कहते हैं कि कृष्ण अपने बड़े भाई बलराम और दूसरे ग्वाल-बालों द्‌वारा उनका उपहास करने की शिकायत माँ यशोदा से करते हैं। बलराम बडे हैं और वे कृष्ण को ये कहके चिढ़ाते रहते हैं कि तुम माता यशोदा के पुत्र नहीं तुम्हें मोल लिया गया है। अपने कथन को सिद्‌ध करने के लिये वे तर्क भी देते हैं कि बाबा नंद भी गोरे हैं, माता यशोदा भी गोरी हैं तो तुम साँवले क्यों हो? अत: तुम माता यशोदा के पुत्र कैसे हो सकते हो? बलराम के कहने पर सभी ग्वाल-सखा बालक कृष्ण को चिढ़ाते हैं। कृष्ण माता यशोदा से कहते हैं कि तू भी मुझे ही मारती है, दाऊ के ऊपर कभी गुस्सा नहीं करती हो। कृष्ण माता यशोदा को उलाहना देते हुए कहते हैं -

तू मोहि को मारन सीखी, दाउहिं कबहु न खीझै।

बालक कृष्ण के मुख से गुस्से से भरी बातें सुनकर माता यशोदा मन ही मन रीझ जाती है और कृष्ण को सांत्वना देते हुए कहती हैं-
सुनहु कान्ह बलभ्रद चबाई, जनमत ही को धूत।
सूर स्याम मोहि गोधन की सौं, हौं माता तू पूत।

अर्थात्‌ हे कान्हा, सुनो, यह बलराम बहुत बातूनी और बचपन से ही धूर्त है। मैं गोधन की सौगंध खाकर कहती हूँ कि मैं तेरी माता हूँ और तुम मेरे पुत्र हो।
निष्कर्ष में हम कह सकते हैं कि सूरदास ने कृष्ण के बाल रूप का अत्यंत स्वाभाविक और हृदयग्राही चित्रण किया है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इसी बात को निर्मुक्त भाव से स्वीकार करते हुए कहा है –“बाल–चेष्ठा के स्वाभाविक मनोहर चित्रों का इतना बड़ा भण्डार और कहीं नहीं है ,जितना बड़ा सूरसागर में है।  

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