महायज्ञ का पुरस्कार
जशपाल जैन
(1912 - 2000)
यशपाल जैन का जन्म 1 सितम्बर 1912 को विजयगढ़ ज़िला अलीगढ़ में हुआ था। सस्ता साहित्य मंडल के प्रकाशन के पीछे मुख्यत: आप ही का परिश्रम था। आपने सस्ता साहित्य मंडल प्रकाशन के मंत्री के रूप में हिंदी की सेवा की । आपने अनेक उपन्यास, कहानीसंग्रह, एक आत्मकथा, तीन प्रकाशित नाटक, कविता संग्रह, यात्रा वृत्तांत, व संग्रहों का प्रकाशन व संपादन किया।
इनकी रचनाओं में नैतिक एवं सामाजिक मूल्यों को गंभीरता से उभारा गया है।
यशपाल की भाषा अत्यंत व्यावहारिक है जिसमें आम बोलचाल के शब्दों का प्रयोग किया गया है।
1990 में आपको पद्मश्री से सम्मानित किया गया था।
इनकी रचनाओं में नैतिक एवं सामाजिक मूल्यों को गंभीरता से उभारा गया है।
यशपाल की भाषा अत्यंत व्यावहारिक है जिसमें आम बोलचाल के शब्दों का प्रयोग किया गया है।
1990 में आपको पद्मश्री से सम्मानित किया गया था।
10 अक्टूबर 2000 को नागदा (म. प्र) में आपका निधन हो गया।
कठिन शब्दार्थ
पौ फटना - सूर्योदय
आद्योपांत - शुरू से अंत तक
कोस - लगभग दो मील के बराबर नाप
तहखाना - ज़मीन के नीचे बना कमरा
प्रथा - रिवाज़
बेबस - विवश
धर्मपरायण - धर्म का पालन करने वाला
विस्मित - हैरान
कृतज्ञता - उपकार मानना
उल्लसित - प्रसन्न
विपदग्रस्त - मुसीबत में फँसे
(1)
उन दिनों एक कथा प्रचलित थी। यज्ञों के फल का क्रय-विक्रय हुआ करता था। छोटा-बड़ा जैसा यज्ञ होता, उनके अनुसार मूल्य मिल जाता। जब बहुत तंगी हुई तो एक दिन सेठानी ने कहा, "न हो तो एक यज्ञ ही बेच डालो!"
प्रश्न
(i) उन दिनों क्या प्रथा प्रचलित थी?
(ii) सेठानी ने एक यज्ञ बेचने का सुझाव क्यों दिया?
(iii) भूखे कुत्ते को रोटियाँ खिलाने को सेठ ने महायज्ञ क्यों नहीं माना?
(iv) कहानी के अनुसार महायज्ञ क्या था? इसके बदले में सेठ को क्या मिला?
उत्तर
(i) उन दिनों यज्ञों के फल के क्रय-विक्रय की प्रथा प्रचलित थी।
(ii) सेठ बहुत धनी थे। वे अत्यंत विनम्र और उदार भी थे। उनका मन धार्मिक कार्यों में लगता था। उन्होंने अपने घर का भंडार - द्वार सबके लिए खोल दिया था। उनके द्वार पर जो भी हाथ पसारे आता खाली हाथ नहीं जाता। सेठ ने बहुत से यज्ञ किए और दान में बहुत सारा धन दीन-दुखियों में बाँट दिया। अकस्मात् दिन फिरे और सेठ अत्यंत गरीब हो गए और भूखों मरने की नौबत आ गई। गरीबी से परेशान होकर सेठ की पत्नी ने सेठ को एक यज्ञ बेचने का सुझाव दिया।
(iii) सेठ अत्यंत उदार प्रवृत्ति के थे। गरीब होने पर भी उन्होंने अपने कर्त्तव्य को सदैव सर्वोपरि माना और उसी के अनुरूप आचरण दिखाया। स्वयं भूखे रहकर भी एक भूखे कुत्ते को अपनी चारों रोटियाँ खिला दीं। धन्ना सेठ की त्रिलोक-ज्ञाता पत्नी ने सेठ के इस कृत्य को महाज्ञय की संज्ञा दी, तो सेठ ने इसे केवल कर्त्तव्य-भावना का नाम दिया। सेठ का मानना था कि भूखे कुत्ते को रोटी खिलाना मानवोचित कर्त्तव्य है।
(iv) कहानी के अनुसार लेखक का मानना है कि अपनी कामनाओं की पूर्ति के लिए धन-दौलत लुटाकर किया गया यज्ञ, वास्तविक यज्ञ नहीं हो सकता बल्कि नि:स्वार्थ और निष्काम भाव से किया गया कर्म ही सच्चा महायज्ञ कहलाता है। स्वयं कष्ट सहकर दूसरों की सहायता करना ही मानव-धर्म है। सेठ ने भूखे कुत्ते को रोटी खिलाना अपना मानवीय कर्म समझा न कि महायज्ञ। उन्होंने अपने कर्म को मानवीय-कर्त्तव्य समझा और उसे धन्ना सेठ को नहीं बेचा।
ईश्वर की कृपा-दृष्टि से सेठ को अपने घर में एक तहखाने में हीरे-जवाहरात मिले। यह सेठ के महायज्ञ का पुरस्कार था।
(2)
“ ओ सेठ! स्वयं भूखे रहकर, अपना कर्त्तव्य मानकर प्रसन्नचित्त तुमने मरणासन्न कुत्ते को चारों रोटियाँ खिलाकर उसकी जान