संस्कृति क्या है ?
:- रामधारी सिंह "दिनकर"
प्रश्न
लेखक ने किन लक्षणों का उल्लेख
कर संस्कृति को समझाने का प्रयत्न किया है? समझाकर लिखिए तथा यह बताइए कि किस दृष्टिकोण से भारत और भारतीय
संस्कृति महान है?
उत्तर
रामधारी सिंह 'दिनकर' स्वतन्त्रता पूर्व एक विद्रोही कवि के रूप में स्थापित हुए और स्वतन्त्रता के बाद
राष्ट्रकवि के नाम से जाने गए। एक ओर उनकी रचनाओं में ओज, विद्रोह, आक्रोश और क्रान्ति
की पुकार है तो दूसरी ओर मानव सभ्यता और संस्कृति की अभिव्यक्ति है। उन्होंने सामाजिक
और आर्थिक समानता की वकालत की और शोषण के खिलाफ रचनाएँ लिखीं।
उनकी पुस्तक संस्कृति के चार
अध्याय के लिये साहित्य अकादमी पुरस्कार तथा
उर्वशी के लिये भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार प्रदान किया गया। भारत सरकार ने इन्हें पद्म
भूषण से सम्मानित किया।
प्रमुख रचनाएँ - मिट्टी की
ओर, रेती के फूल, कुरुक्षेत्र, रेणुका, हुंकार, रश्मिरथी, परशुराम की प्रतीक्षा
आदि।
रामधारी सिंह ’दिनकर’ ने अपनी
प्रसिद्ध रचना ’संस्कृति के चार अध्याय’ में संस्कृति के विषय में व्यापक चर्चा की
है। संस्कृति एक ऐसा शब्द है जिसका उपयोग अधिकतर किया जाता है पर उसको समझना कठिन है।
लेखक ने अपने निबंध ’संस्कृति क्या है’ में संस्कृति के लक्षणों की सहायता से उसे समझने
और समझाने की प्रभावशाली कोशिश है।
लेखक ने एक वाक्य के द्वारा
संस्कृति के एक लक्षण को अभिव्यक्त किया है -
"अंग्रेज़ी में कहावत
है कि सभ्यता वह चीज़ है जो हमारे पास है, संस्कृति वह गुण है जो हममें व्याप्त है।"
सभ्यता और संस्कृति में मौलिक
अन्तर यह है कि, सभ्यता का सम्बन्ध
जीवन यापन या सुख-सुविधा की बाहरी वस्तुओं से है, जबकि संस्कृति का सम्बन्ध आन्तरिक गुणों से। सभ्यता स्थूल भौतिक
पदार्थ है और संस्कृति वह कला है जो उन वस्तुओं का निर्माण करती है। प्रत्येक सुसभ्य
व्यक्ति सुसंस्कृत नहीं हो सकता। वह अच्छे कपड़े पहन सकता है, अच्छे घर में रह सकता है, अच्छा खा-पी सकता है पर जरूरी नहीं कि उसमें अच्छे
संस्कार भी हों। ठीक इसके विपरीत अति सामान्य जीवन व्यतीत करने वाला व्यक्ति भले ही
सुसभ्य न हो परन्तु अपने अच्छे गुणों के कारण सुसंस्कृत समझा जाएगा। लेखक ने अपनी बात
को समझाने के लिए छोटा नागपुर की पिछड़ी आदिवासी जनता तथा भारतवर्ष के ऋषि-मुनियों का
उदाहरण दिया है।
सभ्यता और संस्कृति एक-दूसरे
के पूरक हैं। साधारण नियम के अनुसार सभ्यता और संस्कृति का विकास, उनकी प्रगति अधिकतर एक साथ होती है। लेखक ने घर
बनाने के उदाहरण से अपनी बात स्पष्ट करनी चाही है। जब हम घर बनाते हैं तब यह स्थूल
रूप से सभ्यता का कार्य होता है पर घर कैसा बनेगा, उसका नक्शा क्या होगा, उसकी सजावट कैसी होगी आदि-आदि इसका निर्णय हमारी सांस्कृतिक
रुचि पर निर्भर करती है। संस्कृति की प्रेरणा से बनाया गया घर सभ्यता का अंग बन जाता
है।
लेखक ने संस्कृति और प्रकृति
के अंतर को भी स्पष्ट किया है। गुस्सा करना, लोभ में पड़ना मनुष्य का स्वभाव। ईर्ष्या, द्वेष, मोह, राग, कामवासना प्रकृति के गुण हैं। यदि मनुष्य ने इन्हें
अपने वश में नहीं किया तो ये ही गुण दुर्गुण बनकर मानव को पशु की श्रेणी में ला देंगे।
इन दुर्गुणों पर विजय प्राप्त करने वाला मनुष्य ही उच्च कोटि का संस्कारी माना जाता
है।
सभ्यता की उन्नति अल्पकाल
में होती है, जबकि संस्कृति विस्तृतकालीन
सभ्यता की परिणति है। सभ्यता के साधन जल्दी इकट्ठे किए जा सकते हैं, किन्तु उसके उपयोग के लिए जो उपयुक्त संस्कृति चाहिए
वह तुरन्त नहीं आ सकती। लेखक के शब्दों में - "अनेक शताब्दियों तक एक समाज के
लोग जिस तरह खाते-पीते, रहते-सहते,
पढ़ते-लिखते, सोचने-समझने और राज-काज चलाते अथवा धर्म-कर्म करते हैं,
उन सभी कार्यों से उसकी संस्कृति उत्पन्न होती है।"
संस्कृति ज़िन्दगी का एक तरीका है और यह तरीका सदियों से जमा होकर उस समाज में छाया
रहता है जिसमें हम जन्म लेते हैं और मरने के बाद हम अन्य वस्तुओं के साथ अपनी संस्कृति
की विरासत भी अपनी संतानों के लिए छोड़ जाते हैं। यह सिलसिला सैकड़ो वर्षों से चला आ
रहा है। लेखक के शब्दों में - "संस्कार या संस्कृति, असल में, शरीर का नहीं आत्मा
का गुण है और जबकि सभ्यता की सामग्रियों से हमारा संबंध शरीर के साथ ही छूट जाता है,
तब भी हमारी संस्कृति का प्रभाव हमारी आत्मा के
साथ जन्म-जन्मांतर तक चलता रहता है।"
प्राचीन काल से ही पनपने वाली
कला हमारी संस्कृति की धरोहर है। पुस्तकालयों और संग्रहालयों. नाट्यशालाओं और सिनेमा-घर
के साथ-साथ राजनीतिक और धार्मिक संगठन भी महारी संस्कृति की पहचान हैं।
संस्कृति का स्वभाव आदान-प्रदान
होता है जब दो देशों के बीच संबंध स्थापित होते हैं तब उनकी संस्कृतियाँ भी एक-दूसरे
से प्रभावित होती हैं ठीक उसी प्रकार जब दो भिन्न संस्कृति वाले व्यक्ति आपस में मिलते
हैं तब एक-दूसरे पर अपना प्रभाव डालते हैं। अक्सर जब दो संस्कृतियाँ आपस में मिलती
हैं तब सबसे पहले संघर्ष होता है फिर संप्रेषण और अंतत: समिश्रण।
लेखक के अनुसार जो जाति सिर्फ़
देना जानती है, लेना नहीं अर्थात
जिस जाति में दूसरी संस्कृति की अच्छी बात ग्रहण करने की उदारता नहीं होती उसकी संस्कृति
का एक दिन दिवाला निकल जाता है। जिस जलाशय में पानी आने का स्रोत खुला होता है,
उसकी संस्कृति कभी नहीं सूखती। "जब भी दो जातियाँ
मिलती हैं, उनके संपर्क या संघर्ष से
जिन्दगी की नई धारा फूट निकलती है जिसका प्रभाव दोनों पर पड़ता है। आदान-प्रदान की प्रक्रिया
संस्कृति की जान है और इसी के सहारे वह अपने को जिन्दा रखती है।"
रामधारी सिंह ’दिनकर’ जी का
यह मानना है कि जिस देश और जाति ने अधिक से अधिक संस्कृतियों को आत्मसात करके समन्वय
को महत्त्व दिया है वह देश और जाति महान मानी गई है। भारत देश और भारतीय जाति इस दृष्टि
से दुनिया में सबसे महान और अग्रणीय है, क्योंकि यहाँ की सामाजिक संस्कृति में कई जातियों की संस्कृतियाँ समाहित है।