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पुत्र-प्रेम--प्रेमचंद



                                                                    गद्‌य संकलन
पुत्र-प्रेम--प्रेमचंद
प्रश्न
"एक-एक शब्द उनके हृदय में शर के समान चुभता था। इस उदारता के प्रकाश में उन्हें अपनी हृदयहीनता, अपनी आत्मशून्यता, अपनी भौतिकता अत्यंत भयंकर दिखाई देती थी।" - बाबू चैतन्यदास की आत्मग्लानि का क्या कारण था ? अपने शोक संतप्त हृदय की शांति के लिए उन्होंने किस उपाय का सहारा लिया ?
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उत्तर
पुत्र-प्रेम प्रेमचंद द्‌वारा लिखी गई हिन्दी की प्रमुख कहानियों में से एक है।
हिन्दी कथा साहित्य में प्रेमचंद का स्थान महत्त्वपूर्ण है। प्रेमचंद को हिन्दी कथा-सम्राट की संज्ञा भी दी गई है। प्रेमचंद के लेखन पर गाँधीवादी विचारधारा का प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित होता है। 
प्रेमचंद की भाषा में हिन्दी-उर्दू के आसान शब्दों का प्रयोग मिलता है जिसे हिन्दुस्तानी भाषा भी कहा जा सकता है। प्रेमचंद  का साहित्य आदर्श से यथार्थ की ओर अग्रसर होता है।
प्रेमचंद की प्रमुख रचनाएँ हैं-पंच परमेश्वर, पूस की रात, दो बैलों की
                                          कथा,नशा,परीक्षा आदि।

 प्रेमचंद द्‌वारा रचित प्रसिद्‌ध कहानी पुत्र-प्रेम एक पिता की हृदयहीनता और संवेदनहीनता का अत्यंत मार्मिक चित्रांकन करता है। भारतीय समाज में परिवार का विशेष महत्त्व है। परिवार के सभी सदस्य एक-दूसरे के सुख-दुख में शामिल रहते हैं और कठिन-से-कठिन परिस्थितियों में भी मज़बूती के साथ एक-दूसरे का साथ देते हैं लेकिन जिस परिवार में सदस्य एक-दूसरे से भावानात्मक रूप से नहीं जुड़े होते हैं उस परिवार का भविष्य सदैव अंधकारमय होता है।
बाबू चैतन्यदास शहर के जाने-माने वकील थे जिन्होंने अर्थशास्त्र खूब पढ़ा था । उनका स्पष्ट मानना था कि यदि खर्च करने के बाद स्वयं का या किसी दूसरे का उपकार नहीं होता है तो वह खर्च व्यर्थ है और उसे नहीं करना चाहिए। बाबू चैतन्यदास जी ने अर्थशास्त्र को अपने जीवन का आधार बना लिया था।
बाबू चैतन्यदास जी के दो पुत्र थे - बड़े का नाम प्रभुदास और छोटे का नाम शिवदास। दोनों कॉलेज में पढ़ते थे और पिता को दोनों से बड़ी आशाएँ थी और वे प्रभुदास को इंग्लैंड भेजकर बैरिस्टर बनाना चाहते थे। लेकिन नियति को कुछ और ही मंजूर था। बी०ए० की परीक्षा के बाद प्रभुदास की तबीयत खराब होने लगी और उसे ज्वर आने लगा। एक महीने तक दवा करवाने के बावजूद भी प्रभुदास की  अवस्था में कोई परिवर्तन नहीं आया बल्कि वह बहुत ही कमज़ोर होता चला गया। डॉक्टर ने बताया कि उसे ट्‌युबरक्युलासिस (तपेदिक) है और वह आगे की पढ़ाई जारी नहीं रख सकता है क्योंकि अब प्रभुदास में मानसिक परिश्रम करने की शक्ति नहीं रही। डॉक्टर ने बाबू चैतन्यदास को सलाह दी कि प्रभुदास को इटली के किसी सेनेटोरियम में भेज दिया जाए जिसके लिए लगभग तीन हजार का खर्च लगेगा लेकिन यह निश्चित नहीं है कि प्रभुदास पू री तरह से स्वस्थ हो जाएँगे। बाबू चैतन्यदास की पत्नी और प्रभुदास की माँ तपेश्वरी अपने बेटे को इटली भेजने का जिद करती है लेकिन चैतन्यदास को व्यर्थ खर्च का भय सताने लगता है। बाबू चैतन्यदास अपने पूर्वजों की संचित संपत्ति को अनिश्चित हित की आशा पर बलिदान नहीं करना चाहते थे।
छह महीने बीत जाते हैं और शिवदास बी०ए० की परीक्षा में उत्तीर्ण हो जाता है। चैतन्यदास उसे इंग्लैंड में कानून की पढ़ाई करने भेज देते हैं और इधर प्रभुदास की मृत्यु हो जाती है।

चैतन्यदास प्रभुदास का दाह-संस्कार करने के लिए मणिकर्णिका घाट पर जाते हैं। उन्हें अपने बेटे के इलाज के लिए तीन हजार रुपए खर्च न करने का दुख सताता है। तभी उन्हें मनुष्यों का एक समूह अरथी के साथ आता हुआ दिखाई दिया। वे सब ढोल बजाते, गाते, पुष्प-वर्षा करते चले आते थे। उनमें से एक युवक आकर चैतन्यदास के पास खड़ा हो गया और बातचीत के दौरान उस युवक ने बताया कि उसके पिता की मृत्यु हो गई है। पिता की अंतिम इच्छा थी कि हमें मणिकर्णिका घाट पर ही ले जाना। गाँव से आने के कारण सैकड़ों खर्च हो गए लेकिन बूढ़े पिता को मुक्ति तो मिल गई। युवक ने कहा - "रुपया-पैसा हाथ का मैल है। कहाँ आता है, कहाँ जाता है, मनुष्य नहीं मिलता। जिंदगानी है तो कमा खाऊँगा। पर मन में यह लालसा तो नहीं रह गई कि हाय! यह नहीं किया, उस वैद्‌य के पास नहीं गया, नहीं तो शायद बच जाते...।"
बाबू चैतन्यदास सिर झुकाए उस युवक की सारी बातें सुन रहे थे। बाबू चैतन्यदास का मन आत्मग्लानि से भर उठा। युवक का एक-एक शब्द उनके हृदय में तीर के समान चुभ रहा था। उन्हें अपनी हृदयहीनता, आत्मशून्यता और इस भौतिक दुनिया के धन-दौलत एवं ऐश्वर्य अत्यंत भयंकर जान पड़ रहे थे।
अपने शोक संतप्त हृदय की शांति के लिए उन्होंने प्रभुदास की अंत्येष्टि पर हजारों रुपए खर्च किए और यह उनका प्रायश्चित भी था और अपने दुखी मन को शांत करने का उपाय भी।

हम कह सकते हैं कि बाबू चैतन्यदास ने परिवार के भावनात्मक रिश्ते की तिलाजंलि देकर अपनी संपत्ति की रक्षा की और अंतत: अपने पुत्र को खोकर आत्म-पीड़ा में डूब गए।

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