एक
फूल की चाह
सियारामशरण गुप्त
प्रश्न
"एक फूल की चाह" शीर्षक कविता में कवि ने किस समस्या को उजागर किया है ? इस कविता के माध्यम से कवि हमें क्या संदेश देना चाहते हैं ?
सियारामशरण गुप्त
प्रश्न
"एक फूल की चाह" शीर्षक कविता में कवि ने किस समस्या को उजागर किया है ? इस कविता के माध्यम से कवि हमें क्या संदेश देना चाहते हैं ?
उत्तर
सियारामशरण गुप्त हिन्दी के प्रसिद्ध गाँधीवादी कवि हैं। प्रारंभिक शिक्षा
पूरी करने के बाद उन्होंने घर में ही गुजराती, अंग्रेजी और उर्दू भाषा सीखी। सन् 1929 ई. में राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी और कस्तूरबा गाँधी के सम्पर्क में आये। 1914 ई. में उन्होंने अपनी पहली रचना मौर्य विजय लिखी।
सियारामशरण गुप्त गांधीवाद की परदु:खकातरता, राष्ट्रप्रेम, विश्वप्रेम, विश्व शांति, सत्य और अहिंसा से आजीवन प्रभावित रहे। इनके साहित्य में शोषण, अत्याचार और
कुरीतियों के विरुद्ध संघर्ष का स्वर विद्यमान है।
गुप्त जी की भाषा सहज तथा व्यावहारिक है। 1941 ई. में इन्हें नागरी प्रचारिणी सभा वाराणसी द्वारा
"सुधाकर पदक" प्रदान किया गया।
प्रमुख
रचनाएँ - अनाथ, आर्द्रा, अनुरूपा, पाथेय, मृण्मयी, जय हिन्द आदि।
"एक फूल की चाह" कविता
में कवि सियारामशरण गुप्त जी ने भारतीय समाज की एक गंभीर समस्या छुआछूत का अत्यंत मार्मिक
ढंग से चित्रण किया है।
भारत अध्यात्मवादी देश है किन्तु हम मनुष्य को मनुष्य का दर्ज़ा देते हुए भी झिझकते हैं। आबादी
के एक बड़े हिस्से को अछूत कहकर उसका तिरस्कार और शोषण करते हैं और विश्वास करते हैं
कि उनके स्पर्श मात्र से धर्म भ्रष्ट हो जाएगा! उनके मन्दिरों में प्रवेश से देवगण नाराज हो उठेंगे!
कुएँ से उनके द्वारा पानी निकालने से कुआँ अपवित्र हो जाएगा! आदि-आदि।
एक बार भगत
सिंह ने कहा था -"कुत्ता हमारी गोद में बैठ
सकता है। हमारी रसोई में निःसंग फिरता है,
लेकिन
एक इन्सान का हमसे
स्पर्श हो जाए तो बस धर्म भ्रष्ट हो जाता है।... सबको प्यार करनेवाले भगवान की पूजा करने के
लिए मन्दिर बना है लेकिन वहाँ अछूत जा घुसे तो वह मन्दिर अपवित्र हो जाता है! भगवान रुष्ट हो जाता
है!..."
प्रस्तुत कविता में एक दलित पिता की पीड़ा को उभारा गया है जिसकी बेटी महामारी की चपेट में आ जाती है और उसका पूरा शरीर
ज्वर के ताप से तपने लगता है। ज्वर से ग्रसित होने के कारण बेटी का स्वर क्षीण हो
जाता है तथा शरीर अत्यंत कमज़ोर पड़ने लगता है। पिता चिंतित होकर अपनी बेटी को
बचाने के लिए नए-नए उपाय ढूँढ़ने
लगता है। पिता के सम्मुख चारों ओर अँधेरा ही अँधेरा दिखाई देता है। उसे ऐसा आभास होता है कि अंधकार
उसकी छोटी-सी बिटिया को अपना ग्रास बनाने आ रहा है। उसकी बेटी की आँखें उसी प्रकार
जल रही है जैसे आकाश में तारे। एक दिन बेटी पिता से देवी माँ के प्रसाद का एक
फूल लाने की याचना करती है। पिता अपनी बीमार बच्ची की इच्छा को पूरा करने के
लिए, देवी माँ के मंदिर
से एक फूल लाने जाता है, परन्तु हमारी
सामाजिक बनावट में दलितों का मंदिर में प्रवेश निषेध है। अत: लाचार पिता को मंदिर
में प्रवेश करने और पूजा का फूल लेने की धृष्टता के लिए खूब पीटा जाता है। पिता अपनी मृत प्राय बेटी
की अंतिम इच्छा को भी पूरी नहीं कर पाता है।
सिंह पौर तक भी आँगन से
नहीं पहुँचने मैं पाया
सहसा यह सुन पड़ा कि - "कैसे
यह अछूत भीतर आया?
पकड़ो, देखो भाग न जाए,
बना धूर्त है यह कैसा,
साफ़-स्वच्छ परिधान किए हैं
भले मनुष्यों के जैसा।
प्रस्तुत कविता के
माध्यम से कवि ने यह संदेश देने की कोशिश की है कि सामाजिक विकास के लिए जाति के आधार पर
किसी भी तरह का भेदभाव नहीं होना चाहिए।
भारतीय संविधान के धारा-17 के अंतर्गत भी छुआछूत को ग़ैरकानूनी माना गया है। देश का संविधान
प्रत्येक नागरिक को समान अधिकार देता है। जाति के आधार पर किसी से भेदभाव करना
सामाजिक अपराध है जो मनुष्य की गरिमा को चोट पहुँचाती है। कवि के अनुसार जब
हम सब देवी माँ की संतान हैं तब क्या उस पिता का दोष देवी की गरिमा से भी बड़ा है ? समाज में जो
व्यक्ति ऐसा सोचता है कि दलित के मंदिर में प्रवेश करने से मंदिर या देवी माँ कलुषित हो जाएगी , उस व्यक्ति के विचार में खोट है और हृदय में ओछापन। छुआछूत
के नाम पर दलितों को मंदिर में प्रवेश करने से रोकना आधुनिक हो रहे मानव को पतन की ओर उन्मुख
करेगा और ऐसी स्थिति में हम एक ऐसे समाज की संरचना करेंगे जहाँ मानवीय-संवेदना और मानवीय-सहयोग का लोप हो जाएगा।