साखी
कबीरदास
प्रश्न
कबीर का परिचय देते हुए कबीर की ईश्वर के प्रति विरह-वेदना को स्पष्ट
कीजिए।
कबीरदास
प्रश्न
कबीर का परिचय देते हुए कबीर की ईश्वर के प्रति विरह-वेदना को स्पष्ट
कीजिए।
उत्तर
कबीर सन्त कवि और समाज सुधारक थे। ये सिकन्दर लोदी के समकालीन थे। कबीर का अर्थ अरबी भाषा में महान होता
है। कबीरदास भारत के भक्ति काव्य परंपरा के महानतम कवियों में से एक थे। कबीरपंथी, एक धार्मिक समुदाय जो कबीर के सिद्धांतों और शिक्षाओं को अपने जीवन शैली का आधार मानते हैं।
कबीरदास का लालन-पोषण एक जुलाहा परिवार
में हुआ। इन्होंने गुरु रामानंद से दीक्षा ली। कबीर
पढ़े-लिखे नहीं थे। उन्होंने एक कुशल समाज-सुधारक की तरह तत्कालीन समाज में व्याप्त धार्मिक
कुरीतियों, मूर्ति-पूजा, कर्मकांड तथा बाहरी आडंबरों का जोरदार तरीके से
विरोध किया। कबीरदास ने हिन्दू-मुसलामन ऐक्य का खुला समर्थन किया। कबीर के दोहों में गुरु-भक्ति, सत्संग, निर्गुण भक्ति तथा जीवन की व्यावहारिक आदि
विषयों पर ज़ोर दिया गया है।
कबीर की वाणी का संग्रह 'बीजक' के नाम से प्रसिद्ध है। इसके तीन भाग हैं- साखी, सबद और रमैनी।
कबीर की भाषा में भोजपुरी, अवधी, ब्रज, राजस्थानी, पंजाबी, खड़ी बोली, उर्दू और फ़ारसी के शब्द घुल-मिल गए हैं। अत: विद्वानों ने उनकी
भाषा को सधुक्कड़ी या पंचमेल खिचड़ी कहा है।
कबीर ने निर्गुण ब्रह्म की उपासना की है। उनके राम दुनिया के हर कण में विद्यमान हैं और उन्हें सच्चे मन और प्रेम से प्राप्त किया जा सकता है।
कबीर अपने को राम की बहुरिया मानते हैं जिसका परम कर्त्त्वय है कि वह अपने प्रियतम (ईश्वर) की आराधना करे।
कबीर ने भक्तिपरक दोहों में ईश्वर के प्रति
विरह-वेदना को प्रकट किया है। वे कहते हैं कि अपने ईश्वर से
बिछड़ने पर जीव (आत्मा) को कहीं भी सुख की प्राप्ति नहीं होती है। न तो उसे दिन में चैन पड़ता है और न ही रात को आराम; न उसे धूप में सुख मिलता है और न ही छाँव में।
बासुरि सुख, नाँ रैणि सुख, ना सुख सुपिनै माहिं।
कबीर बिछुट्या राम सूं, ना सुख धूप न
छाँह॥
कबीर अपने प्रभु से प्रार्थना करते हैं कि हे ईश्वर! यदि आप मुझे दर्शन देना
चाहते हैं, तो मरने के बाद दर्शन
देने की जगह जीवन रहते ही दर्शन दीजिए क्योंकि पारस पत्थर की तलाश में पत्थरों से
रगड़ते-रगड़ते जब सारा लोहा ही समाप्त हो जाएगा तो उसके बाद पारस पत्थर के
मिलने का क्या फायदा ?
मूवां पीछे जिनि मिलै, कहै कबीरा राम।
पाथर घाटा लौह सब, पारस कोणों काम॥
कबीर प्रभु विरह के वियोग में तड़पते हुए कहते हैं कि
प्रियतम की बाट देखते-देखते आँखों के सामने अँधेरा छाने लगा है और इस जिह्वा पर भी राम पुकारते-पुकारते छाले पड़ गए हैं लेकिन अभी तक
अपने प्रभु से मिलन नहीं हुआ है।
अंखड़ियाँ झाईं पड़ी, पंथ निहारि-निहारि।
जीभड़ियाँ छाला पड्या, राम पुकारि-पुकारि॥
कबीर कहते हैं कि ईश्वर के वियोग में मैं पर्वत-पर्वत घूमा
और उन्हें याद कर-करके बहुत रोया और अपने नेत्र भी खो दिए, पर वह जड़ी-बूटी कहीं नहीं मिल रही है, जिससे जीवन की प्राप्ति होती है अर्थात् ईश्वर रूपी औषधि नहीं मिली जिससे जीवन में संतोष की प्राप्ति होती
है
परवति-परवति मैं फिर्या, नैन गँवाए रोइ।
सो बूटी पाँऊ नहीं,
जातैं
जीवनि होई॥
कबीर की
आध्यात्मिक क्षुधा और आकांक्षा विश्वग्रासी है। वह कुछ भी नहीं छोडना चाहती, इसलिये उन्होंने हिन्दू, मुसलमान, सूफी, वैष्णव, सब साधनाओं को जोर से पकड रखा
है।
कबीर की भक्ति में व्याकुल मन ने विरह का जो वर्णन किया है वह
इतना मार्मिक तथा स्वाभाविक है कि लगता है कबीर
का पौरुषत्व यहाँ समाप्त हो गया है और उनकी आत्मा
ने स्त्री रूप में प्रियतम के लिये यह शब्द कहे हैं-''
मन परतीति न प्रेम रस, ना इस तन में ढंग।
क्या जाणौ उस पीव सूं कैसी रहसि संग।।''
क्या जाणौ उस पीव सूं कैसी रहसि संग।।''