बादल को घिरते देखा है
नागार्जुन
अवतरणों पर आधारित प्रश्नोत्तर
ऋतु वसंत का सुप्रभात थामंद-मंद था अनिल बह रहाबालारुण की मृदु किरणें थींअगल-बगल स्वर्णिम शिखर थेएक-दूसरे से विरहित होअलग-अलग रहकर ही जिनकोसारी रात बितानी होती,निशा काल से चिर-अभिशापितबेबस उस चकवा-चकई काबंद हुआ क्रंदन, फिर उनमेंउस महान सरवर के तीरेशैवालों की हरी दरी पर,प्रणय-कलह छिड़ते देखा है।बादल को घिरते देखा है।
प्रश्न:
(i) कवि और कविता का नाम लिखकर बताएँ कि कवि किस काल की किस धारा के कवि हैं?(ii) प्रस्तुत कविता का मूल आधार क्या है?(iii) कवि ने किस सुप्रभात का वर्णन किया है?(iv) बेबस चकवा-चकई का संदर्भ क्यों उठाया गया है? कविता के प्रसंग में स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
(i) कवि का नाम नागार्जुन तथा कविता का नाम 'बादल को घिरते देखा
है'| कवि नागार्जुन आधुनिक काल की जनवादी काव्यधारा के प्रमुख कवि हैं।
(ii) प्रस्तुत कविता का मूल आधार प्राकृतिक सौन्दर्य का चित्रण है। कवि ने चित्रात्मक भाषा में हिमालय पर्वत तथा बादलों के घिरने के वातावरण के साथ-साथ प्राकृतिक परिवर्तनों का अत्यंत हृदयग्राही चित्रण किया गया है।
(iii) कवि ने वसंत ऋतु के सुप्रभात का वर्णन किया है। इस समय मंद-मंद वायु बहती है। पर्वत की चोटियों पर बालरुण रूपी सूर्य की किरणें पड़ रही होती हैं। यह छटा अत्यंत मनोरम दिखाई देती है और कवि-हृदय को आकर्षित करती है।
(iv) कवि नागार्जुन ने चकवा-चकई का उल्लेख वियोग और मिलन के संदर्भ में किया है। चकवा सुनहरे रंग का पक्षी है जो प्रति वर्ष जाड़ों के प्रारंभ में हमारे देश में उत्तर की ओर से आकर प्रवास करता है और जाड़ा समाप्त होते ही फिर उसी ओर लौट जाता है। चकवा-चकई का प्रयोग भारतीय प्राचीन काव्यों में परस्पर निष्ठा और प्रेम जैसी चारित्रिक विशेषता के संदर्भ में हुआ है। चकवा-चकई का जोड़ा दिन में तो प्रेमपूर्वक साथ साथ विचरते हें किंतु सूर्यास्त के बाद बिछुड़ जाते हैं ओर रात भर अलग रहते हैं और वियोग में क्रंदन करते हैं लेकिन सूर्योदय के साथ ही इनका वियोग समाप्त हो जाता है और मिलन की बेला आती है। प्रात:काल यह जोड़ा सरवर के निकट हरी शैवाल पर एक-दूसरे से प्रणय निवेदन करता है। कवि के अनुसार हिमालय के प्राकृतिक सौन्दर्य में चकवा-चकई का प्रणय-कलह अत्यंत मनोहर प्रतीत होता है।
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