क्या निराश हुआ जाए
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी
प्रश्न
"क्या निराश हुआ जाए" निबंध के शीर्षक की सार्थकता स्पष्ट करते हुए यह बतलाइए कि आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने क्या संदेश दिया है ?
उत्तर
हजारी प्रसाद द्विवेदी जी का हिंदी निबंध और आलोचनात्मक क्षेत्र में महत्वपूर्ण स्थान है। वेउच्च कोटि के निबंधकार और सफल आलोचक हैं।
वे हिंदी, अंग्रेज़ी, संस्कृत और बांग्ला भाषाओं के विद्वान थे। भक्तिकालीन साहित्य का उन्हेंअच्छा ज्ञान था। लखनऊ विश्वविद्यालय ने उन्हें डी.लिट. की उपाधि देकर उनका विशेषसम्मान किया था।
द्विवेदी जी ने भारतीय संस्कृति, साहित्य और इतिहास पर गहन विवेचन किया है। उन्होंने सूर, कबीर, तुलसी आदि पर जो विद्वत्तापूर्ण आलोचनाएँ लिखी हैं, वे हिंदी में पहले नहीं लिखी गईं।हजारी प्रसाद द्विवेदी को साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में अपने उत्कृष्ट कार्य के लिए सन १९५७में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया।
द्विवेदी जी की भाषा परिमार्जित खड़ी बोली है। उन्होंने भाव और विषय के अनुसार भाषा काचयनित प्रयोग किया है। प्रमुख रचनाएँ -बाणभट्ट की आत्मकथा, चारु चंद्रलेख. पुनर्नवा,अनामदास का पोथा आदि।
कवि पन्नालाल ने लिखा है – “रात के ख़त्म होने से सुबह नहीं होती, अँधेरे का गला घोंटना पड़ता है।“ मानव-जीवन में बहुत अँधेरा है। कभी-कभी ऐसा लगता है कि इस काली रात की सुबह नहीं होगी, लेकिन रोशनी की बस एक किरण काली अँधेरी रात का सीना चीरकर उजाले की नई शुरुआत करती है।
लेखक ने इस लेख का शीर्षक 'क्या निराश हुआ जाए' उचित रखा है क्योंकि यह उस सत्य कोउजागर करता है जो हम अपने आसपास घटते देखते रहते हैं। अगर हम एक-दो बार धोखा खानेपर यही सोचते रहें कि इस संसार में ईमानदार लोगों की कमी हो गयी है तो यह सही नहीं होगा।आज भी ऐसे कई लोग हैं जिन्होंने अपनी ईमानदारी को बरकरार रखा है। लेखक ने इसी आधारपर लेख का शीर्षक 'क्या निराश हुआ जाए' रखा है। यही कारण है कि लेखक कहते हैं - "ठगा भीगया हूँ, धोखा भी खाया है। परन्तु, बहुत कम स्थलों पर विश्वासघात नाम की चाज़ मिली है। केवल उन्हीं बातों का हिसाब रखूँ, जिनमें धोखा खाया है तो जीवन कषटकर हो जाएगा, परंतु ऐसी घटनाएँ बहुत कम नहीं हैं, जहाँ लोगों ने अकारण सहायता की है, निराश मन को ढाढ़स दिया है और हिम्मत बँधाई है।“
द्विवेदी जी ने प्रस्तुत निबंध के माध्यम से देश की वर्तमान परिस्थिति का चित्रण करते हुए यह स्पष्ट किया है तिलक, विवेकानन्द और गाँधी के सपनों का आध्यात्मिक मानवीय-मूल्यों वाला भारतवर्ष आज भ्रष्टाचार, बेईमानी, ठगी आदि में फँस गया है। जो जितने ऊँचे ओहदे पर बैठा है, उसमें उतने ही अधिक दोष दिख रहे हैं। देश में ऐसा माहौल बनता जा रहा है कि जो व्यक्ति कुछ नहीं करता है वह बहुत सुखी है क्योंकि यदि वह कुछ करेगा तो समाज के लोग उसमें दोष ढूँढ़ने लगेंगे। आज मेहनत और ईमानदारी से अपनी जीविका चलाने वाले मेहनतक़श लोग मुश्किलों का सामना कर रहे हैं और झूठ और फ़रेब का रोज़गार करने वाले फल-फूल रहे हैं। देश में गरीबों की दयनीय अवस्था को दूर करने के लिए अनेक नियम-क़ानून बनाए जा रहे हैं। कृषि, उद्योग, वाणिज्य, शिक्षा और स्वास्थ्य की स्थिति को उन्नत बनाने की कोशिशें की जा रही हैं, लेकिन ऊँचे पदों पर बैठे जिन लोगों को यह महान कार्य करना है, वे ही अपने उत्तरदायित्वों से विमुख होकर सुख-सुविधाओं की ओर ज़्यादा ध्यान दे रहे हैं।
द्विवेदी जी ने यह भी संदेश दिया है कि दोषों का पर्दाफ़ाश करना तब बुरा रूप ले सकताहै जब हम किसी के आचरण के गलत पक्ष को उद्घाटित करके उसमें रस लेते है। हमारा दूसरोंके दोषोद्घाटन को अपना कर्त्तव्य मान लेना सही नहीं है। हम यह नहीं समझते कि बुराई समानरूप से हम सबमें विद्यमान है। यह भूलकर हम किसी की बुराई में रस लेना आरम्भ कर देते हैंऔर अपना मनोरंजन करने लग जाते हैं। हमें उनकी अच्छाइयों को भी उजागर चाहिए।
लेखक कहते हैं कि भारत में धर्म को क़ानून से बड़ा माना गया है। आज भी देश के बड़े तबके में सेवा, ईमानदारी, सच्चाई और आध्यात्मिक मूल्यों की जड़ें गहराई तक गई हुई हैं। मनुष्य आज भी मनुष्य से प्रेम करता है, स्त्रियों का सम्मान करता है, झूठ और चोरी को गलत समझता है, दूसरों को पीड़ा पहुँचाना गलत मानता है और मुसीबत में पड़े लोगों की सहायता करना अपना परम धर्म समझता है।
निष्कर्ष में हम कह सकते हैं कि यह सत्य है कि मनुष्य ने आदिम काल से लेकर आज-तक विकास का लम्बा सफर तय किया है। इस सफर में मनुष्य ने कई तरह के सामाजिक नियम-क़ानून बनाए जिनमें त्रुटियाँ भी आईं और जिन्हें बदला भी गया। लेकिन आशा की ज्योति बुझी नहीं है। नए भारतवर्ष को गढ़ने और पाने की संभावना बनी हुई है और अतत: बनी रहेगी। हमें निराश होने की कतई जरूरत नहीं है बल्कि स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व को आधार बनाकर सदैव आगे बढ़ते रहना है।
स्रोत ::--हिन्दिज्ञान